यह लेख हमे हमारे पाठक ने भेजा है जिनके अंदर बहुत ज्यादा गुस्सा है और वो आखिरकार अपना गुस्सा इसी प्रकार से निकाल पा रहे हैं
एक शहीद यह भी हैं जिन्हें भुला दिया.
इन्हें सरकारें अपना मोहरा बनाकर प्रस्तुत करती हैं। बचकर घर आ गए तो भली बात। शहीद हो गए तो कोई पूछता तक नहीं। इस भाई को कश्मीर में शहीद हुए उतने ही साल हो गए हैं जितना कारगिल युध्द। तब से यह शहीद शासन, प्रशासन की ओर से भुला दिया जा चुका है। दुर्भाग्य यह भी कि गाँव तक इस शहीद की कुरबानी को नहीं समझता। एक बार गाँव में प्राथमिक विद्यालय का शताब्दी समारोह हुआ। निकम्मे लोगों को सम्मानित किया गया किन्तु इनका नाम तक नहीं लिया गया। प्रशासन चाहता तो इनके नाम का एक द्वार तो बन ही सकता था। किवर्स-कल्जीखाल मार्ग इनके नाम पर रखा जा सकता था।
इनके एक बेटे को नौकरी दी जा सकती थी। क्या इन कामों के लिए भी कार्यालयों में ऐड़ी रगड़नी पड़ेगी? हमारे देश में फौज में गरीब परिवारों के युवा भर्ती होते हैं। यदि वे सही सलामत फौज से सेवानिवृत्त हो गए तो अपने बच्चों को पढ़-लिखा पाते हैं और एक घर ही बना पाते हैं। जीवन जीने के लिए रह जाती है पेंशन। यह पेंशन उन्हें उतनी ही तकलीफे देती है जितनी वह फौज में भुगत चुके होते हैं। गढ़वाल रैफल में जिस दिन यह भाई भर्ती हुए हमारा सीना चौड़ा हो गया था। लेकिन दुर्भाग्य कि अनंतनाग में पैट्रोलिंग के दौरान शहीद हो गए। चोर नेताओं की चौराहों पर जीते-जी मूर्तियां लग जाती हैं, कमबक्तौं शर्म करो।
Mahesha Nand
पाठक
